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नीतीश-लालू के बीच बढ़ी दूरियां? बिहार की महागठबंधन सरकार पर छा रहे संकट के बादल?

जैसे-जैसे यूपी चुनाव नज़दीक आ रहा है, वैसे-वैसे सूबे में सियासी सरगर्मियां तेज होती जा रही हैं, लेकिन, इस चुनाव की सरगर्मी में अभी एक ऐसा समीकरण बना है, जिससे इसी से सटे राज्य बिहार की सियासत में एक बड़े संभावित परिवर्तन का संकेत मिल रहा है।
गौरतलब है कि बिहार में कभी एक-दूसरे के कट्टर राजनीतिक विरोधी रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के बीच गठबंधन की सरकार चल रही है। मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश के पास है, लेकिन राजनीतिक से लेकर जनसामान्य तक यह मान्यता प्रबल रूप से स्थापित है कि असली मुख्यमंत्री तो लालू प्रसाद यादव ही हैं।
सरकार के गठन के बाद से कई एक मामलों में इस मान्यता की पुष्टि भी हुई है। अक्सर लालू यादव के सामने नीतीश कुमार की लाचारगी सामने आती रही है। इन स्थितियों के मद्देनज़र यह कयास लगाए जाते रहे हैं कि यह गठबंधन सरकार अधिक दिन तक नहीं चलेगी। इन्हीं सब के बीच हाल ही में कुछ ऐसी राजनीतिक घटनाए हुई हैं, जो इन कयासों के सही सिद्ध होने की संभावना पर बल देती नज़र आ रही हैं।
दरअसल, हुआ ये है कि नीतीश कुमार यूपी में अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के साथ गठबंधन करके चुनाव में उतरने जा रहे हैं, तो वहीं बिहार में उनकी सरकार के सहयोगी लालू प्रसाद यादव यहां उन्हें छोड़ चुनाव में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी का प्रचार करने का ऐलान कर चुके हैं। इस पर लालू यादव भले से ये कहें कि यह राजनीति के लिए सामान्य बात है, मगर उनके और नीतीश कुमार के बीच सबकुछ इतना सामान्य नहीं है कि इस मामले को सामान्य समझा जाए।
गौर करें तो लालू यादव का ये भी कहना है कि साम्प्रदायिक शक्तियों को रोकने और संघमुक्त भारत के एजेंडे के तहत वे यूपी में सपा का प्रचार करेंगे। लेकिन, कोई उनसे पूछे कि कथित सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ खड़े होने और संघमुक्त भारत की बात करने का काम तो बिहार में उनके सहयोग से सरकार चला रहे नीतीश कुमार सबसे ज्यादा करते हैं, फिर वे अपने इन एजेंडों पर नीतीश के साथ क्यों नहीं खड़े हो रहे?
इस स्थिति से यही स्पष्ट होता है कि लालू-नीतीश का एका सिर्फ बिहार की सत्ता पर काबिज होने के लिए किया गया एक अवसरवादी गठजोड़ है, अन्यथा इनके बीच वैचारिक स्तर पर कोई सहमति बनती नहीं दिख रही है। या यूं कहें कि इन दलों की कोई ठोस विचारधारा ही नहीं है, ये सत्ता के लिए किसी के भी साथ कहीं भी जुड़ सकते हैं। वैसे, यह बात नीतीश कुमार से कहीं अधिक लालू यादव पर लागू होती है।
बहरहाल, अब एक और समीकरण को समझते हैं। यूपी चुनाव में नीतीश के बजाय मुलायम के साथ खड़े होने का लालू यादव ने गत सितम्बर महीने के दूसरे सप्ताह में ऐलान किया और इसके लगभग सप्ताह भर बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दीनदयाल जन्मशताब्‍दी के लिए गठित विशेष समिति में और भी कई दलों के नेताओं के साथ नीतीश कुमार को भी एक सदस्य बना दिए और नीतीश ने इसे स्वीकार भी लिया। यह कतई सामान्य बात नहीं है। इसके अलावा कुछ रोज बाद ही सेना द्वारा पीओके में किए गए सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर नीतीश ने जिस तरह से मोदी सरकार के साथ खड़े होने की बात कही, उसके भी अपने मायने हैं।
यकीनन, ये सब चीजें जिस तरफ इशारा करती हैं, वो यही है कि बिहार की महागठबंधन सरकार में अंदरूनी तौर पर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। एक तरफ लालू-नीतीश में दूरी बढ़ती दिख रही है, तो दूसरी तरफ नीतीश भाजपा के नज़दीक आने की कोशिश करते हुए नज़र आ रहे हैं।
नीतीश का भाजपा के नज़दीक आने की इन सब कवायदों को बेसबब नहीं समझनी चाहिए, क्योंकि हमें नहीं भूलना चाहिए कि ये वही नीतीश कुमार हैं, जो मोदी विरोध में ऐसे डूबे थे कि बिहार चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के एक रैली में दिए वक्तव्य को बिहारियों के डीएनए से जोड़ उन्हें बिहारियों की डीएनए रिपोर्ट भेजने जैसा अभियान चलाने तक में नहीं हिचके। ऐसे मोदी विरोधी नीतीश अगर भाजपा के नज़दीक आ रहे हैं, तो इसे सामान्य नहीं कहा जा सकता, बल्कि निश्चित तौर पर इसके राजनीतिक निहितार्थों का भी विश्लेषण होना चाहिए।
ये राजनीतिक निहितार्थ और उपर्युक्त सभी बातों का मोटे तौर पर निष्कर्ष यही है कि बिहार की महागठबंधन सरकार पर अब प्रश्नचिन्ह लग चुका है और अगर वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों की मानें तो इसका भविष्य अंधकारमय ही नज़र आता है। वैसे, बिना विचारधारा के केवल सत्ता का भोग करने के लिए बनी सरकार का ये हश्र होता है, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इनकी नियति ही यही है।

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