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चाचा-भतीजे की कलह के पीछे कहीं नेताजी तो नहीं! जानें, कैसे अखिलेश के लिए वरदान बने मुलायम सिंह

सा दिखता तो है कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के राजनीतिक दंगल में मुकाबला मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच हो रहा है. दोनों आमने-सामने हैं और राजनीतिक वर्चस्व में अपने को और मज़बूत करने में लगे हुए हैं. लेकिन क्या ऐसा वाकई है कि पिता और पुत्र में ठनी हुई है या फिर यह सारा खेल दरअसल किसी बड़ी रणनीति की ओर इशारा करता है.

ऐसा मानने के पीछे खासी ठोस वजहें हैं. उत्तराधिकार की लड़ाई में राजनीति का सारा खेल दो लोगों के बीच खेला जा रहा है और बाकी सब या तो प्यादे बने हुए हैं और या फिर तमाशबीन. इससे हुआ यह है कि मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव और मज़बूत होकर निकले हैं. खासकर अखिलेश के लिए यह लड़ाई कई मायनों में सकारात्मक है.

मुलायम सिंह राजनीति में इस तरह के खेलों के लिए जाने जाते रहे हैं. कहा जाता है कि मुलायम सिंह कयासों और अटकलों को हमेशा से ही धता बताते आए हैं और वो ऐसे व्यक्ति हैं जो किसी भी वक्त किसी को भी चौंकाने की क्षमता रखते हैं. वो दाएं बाजू क्या कर रहे होते हैं, यह बाएं बाजू को भी समझ नहीं आता है.

इसलिए बेवजह ही मुलायम अपनी पार्टी और परिवार को अस्थिर होने दे रहे हैं और वो भी ठीक तब जब राज्य के विधानसभा चुनाव सिर पर खड़े हों, ऐसा यकीन करना मुश्किल लगता है. जिस मिट्टी के मुलायम बने हुए हैं, उसमें मंच के पीछे एक दूसरे और बड़े खेल की भनक साफ मिल रही है. और यह भनक है उत्तराधिकार के युद्ध की.

 

नुकसान किसे
ज़रा गौर से देखिए समाजवादी पार्टी और उत्तर प्रदेश सरकार के पूरे राजनीतिक संकट को कि कौन हैं वो लोग जिन्हें यादव परिवार के पूरे खेल का सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है.

शिवपाल ज़रूर मुलायम की शै पर खेलते नज़र आ रहे हैं लेकिन इस दौरान शिवपाल मंत्रिमंडल से मक्खी की तरह निकालकर बाहर किए जा चुके हैं. उनको एक महीने के अंदर ही दो बार अखिलेश ने मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया. आज स्थिति यह है कि संगठन पर एकछत्र राज करने वाले सेनापति की सेना का एक बड़ा हिस्सा अखिलेश के पक्ष में नारे बुलंद करता नज़र आ रहा है. सरकार में शिवपाल की साख न के बराबर है. और समाजवादी पार्टी में उनकी किलेबंदी को अखिलेश ध्वस्त कर चुके हैं.

रामगोपाल वो दूसरे चेहरे हैं जिसमें इस पार्टी के अंदर खेल करने की क्षमता है. वजह है उनका यादव परिवार से होना. उनके पास भले ही जनसमर्थन कम हो और वो पार्टी के कम लोकप्रिय चेहरे हैं लेकिन वो कुनबे की कमज़ोर नब्ज़ों से वाकिफ़ हैं और इसलिए उन्हें अखिलेश के नाम पर फिलहाल दंडित करना उनके कद को कमतर करने जैसा है. यह आश्चर्य नहीं है कि सपा के प्रोफेसर साहेब अब अखिलेश स्तुति गाने के लिए बाध्य हैं.

कुछ लोग कह सकते हैं कि पार्टी की इस अंदरूनी कलह का सीधा नुकसान अखिलेश यादव को हुआ है. लेकिन ऐसा है नहीं. दरअसल, नुकसान समाजवादी पार्टी को हुआ है. पार्टी को हुआ नुकसान साझा है. वो केवल अखिलेश का नहीं है. इस नुकसान की कीमत केवल अखिलेश को नहीं चुकानी है, सब इसके भुक्तभोगी बनेंगे.

अखिलेश हुए और मजबूत
बल्कि ऐसा कहा जा सकता है कि अखिलेश इस पूरे घटनाक्रम में सबसे कम नुकसान की स्थिति में हैं. अखिलेश तो बल्कि फायदे में रहे हैं. सरकार पर अब उनका पूरी तरह से नियंत्रण है. आज लगभग सारे विधायक अखिलेश के साथ हैं. मंत्रिमंडल उनके साथ खड़ा है. अखिलेश के साथ पार्टी के कार्यकर्ताओं का एक बड़ा हिस्सा जुड़ गया है और अखिलेश के इशारे पर वो एक नए राजनीतिक मंच के साथ उनको मज़बूत करने में जुट सकता है.

अखिलेश ने कुनबे और बाहरियों के हमलों के प्रतिफल में समाज के हर वर्ग की सहानुभूति हासिल कर ली है. हर व्यक्ति अखिलेश की ओर सहानुभूति की नज़रों से देख रहा है. कुछ महीने पहले तक स्थिति ऐसी नहीं थी. अखिलेश को अपने व्यक्तित्व के साथ साथ पूरे कुनबे की छवि को भी ढोना पड़ रहा था. अब ऐसा नहीं है. उसी कुनबे के होते हुए भी अखिलेश आज एक अलग व्यक्तित्व और बेहतर विकल्प के तौर पर देखे जा रहे हैं.

अखिलेश की सबसे बड़ी जीत यह है कि भले ही वो राजनीति अपने पिता और परिवार के जैसी करते आए हों, लेकिन आज अखिलेश अपने पिता सहित बाकी सारे लोगों से अलग अपनी एक आधुनिक और मज़बूत छवि के साथ एक बेहतर राजनीतिक विकल्प बनकर उभरे हैं.

साढ़े चार साल जिस सरकार पर साढ़े चार मुख्यमंत्रियों की सरकार होने का आरोप लगता रहा, वो सरकार चुनाव से ठीक पहले एक व्यक्ति की सरकार है. मुलायम सिंह यादव जैसा एकछत्र व्यक्ति भी उसे उसकी गद्दी से हिला नहीं पाता है. अखिलेश पहली बार इतने मज़बूत और निडर मुख्यमंत्री बनकर उभरे हैं.

मुलायम क्यों कर रहे हैं ऐसा
अपनी उम्र के उतार पर आते मुलायम के लिए सबसे महत्वपूर्ण है अपने उत्तराधिकारी को चुनना और उसे अपने रहते स्थापित कर देना. मुलायम ने शायद इसी मंशा से इस पूरी रणनीति को रचा होगा, ऐसा स्पष्ट नज़र आता है.

मुलायम सिंह यादव की पहली प्रतिबद्धता खुद के प्रति है. लेकिन उनके बाद वाले सवाल पर उनका एक ही विकल्प है और वो है उनका बेटा अखिलेश यादव. लोग कह सकते हैं कि बेटा तो प्रतीक यादव भी है. लेकिन प्रतीक यादव मुलायम सिंह यादव के बेटे नहीं, साधना गुप्ता के बेटे हैं. मुलायम सिंह यादव ने उन्हें अपना नाम दिया है लेकिन वो उनके खून से पैदा औलाद नहीं हैं. इसलिए मुलायम का जो मोह और लगाव अखिलेश के प्रति है, वो कभी भी प्रतीक के प्रति नहीं हो सकता है. अखिलेश ने ऐसा कुछ ग़लत किया भी नहीं है कि वो मुलायम की आंखों से उतरें और उनकी जगह कोई और ले ले.

बल्कि पिता ने जो ज़िम्मेदारी पुत्र को सौंपी, उसे अखिलेश ने बखूबी निभाया है. प्रतीक कभी भी राजनीति को लेकर उत्साहित नहीं रहे. इसलिए मुलायम सिंह यादव को बबूल में आम लगने की उम्मीद नहीं है. प्रतीक से ज़्यादा पढ़े लिखे अखिलेश ने पिता की खड़ाऊं को सिर पर रखकर अपने पैर राजनीति की बैतरणी में उतार दिए हैं.

अब मुलायम चाहते हैं कि उनका पादुकाधारक उनके नाम और प्रभुत्व को आगे ले जाए. यही कारण है कि पूरे परिवार के लोगों को किनारे रखकर 2012 में सत्ता का मुकुट अखिलेश के सिर रखा गया. लेकिन 2012 में जो उत्तराधिकार पांच साल की कुर्सी तक सीमित था, वो अब व्यापक होकर पार्टी और परिवार तक आ गया है.

सूबे में इस चुनाव में सपा की वापसी की गुंजाइश कम है. और अगले चुनाव के आने तक या उसके लिए पार्टी को जिस चेहरे की ज़रूरत पड़ेगी, वो नेताजी शायद न हों क्योंकि उम्र अब उनपर हावी होने लगी है.

आज समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव के बाद दूसरा सबसे बड़ा नाम अखिलेश यादव है. अपने बाद के गृहयुद्ध की आशंकाओं को जन्मने से पहले ही नेताजी से खत्म कर दिया है और अब अखिलेश अपने परिवार और पार्टी की छवि से मुक्त भी हो गए हैं और उसके उत्तराधिकारी भी बन गए हैं. ऐसे में अखिलेश राजनीति में रखने-दिखाने के लिए एक अधिक मजबूत, आधुनिक, ईमानदार, कुशल शासक और साफ छवि का नेता बनकर उभरे हैं.

यह सब नाहक नहीं हुआ है. इसमें से काफी कुछ इस महीने भर से जारी पारिवारिक कलह के का

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