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गंगा को लगा था ब्रह्म हत्या का पाप और मोक्ष मिला था शिप्रा में

ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशमी हस्तसंयुता।

 

हरते दश पापानि तस्माद् दशहरा स्मृता।।

।। ब्रह्मपुराण ।।

 

पुराणों के अनुसार, ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हस्त नक्षत्र में स्वर्ग से गंगा नदी का धरती पर अवतरण हुआ था। इसलिए इस दिन को गंगा दशहरा के नाम से मनाया जाता है। गंगा के किनारों पर तो गंगा दशहरा को बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है, लेकिन मोक्षनगरी उज्जैन में भी इस पर्व का काफी महत्व है और पुण्यसलिला मां क्षिप्रा के किनारों पर शास्त्रोक्त तरीके से इसको मनाया जाता है।

 

शिप्रा नदी अवंतिकापुरी को तीन ओर से घेरती हुई प्रतीत होती है। शिप्रा अपने उत्तर प्रवाह के कारण पवित्र मानी जाती है। उज्जयिनी को श्रीविष्णु का ‘पदकमल’ कहा गया है। गंगा विष्णुपदी है इसलिए भी शिप्रा को गंगा कहा जाता है। यहां पर ब्रह्महत्या के पाप का भी निवारण होता है। शिप्रा को गंगा के पांच स्वरूपों में से एक माना गया है।

 

इसलिए इसको ‘अम्बूमयी मूर्ति’ अर्थात शिव का तरल रूप भी माना गया है। शिप्रा की तुलना काशी की उत्तरवाहिनी गंगा के प्रवाह से की जाती है। गंगा वहीं अधिक पवित्र मानी जाती है जहां वह उत्तरवाहिनी हो जाती है। स्कन्द पुराण के अनुसार शिप्रा उस बिन्दू से पूर्ववाहिनी हो जाती है, जहां एक बार गंगा का आलिंगन करती है। इस स्थान पर शिप्रा किनारे गंगेश्वर शिवलिंग विद्यमान है। शिप्रा ओखरेश्वर से मंगलनाथ तक पूर्ववाहिनी है।

 

शिप्रायाश्च कथां पुण्यां पवित्रां पापहारिणीम् ।

 

तदाप्रभृति विख्याता शिप्रेयं पापनाशिनी ।।

।। स्कन्द पुराण ।।

शिप्रा नदी की कथा पुण्यवती, पवित्र और सभी पापों का हरण करने वाली है । तबसे यह आज तक शिप्रा नदी पाप का नाश करने वाली नदी के रूप में विख्यात है। अवंतिका पुरी में और शिप्रा की लहरों में सदा उत्सव और उत्साह का प्रचंड प्रवाह बहता रहता है। शिप्रा का शांत गंभीर प्रवाह और किनारों के शिवलिंग सब कुछ मौन रहते हैं लेकिन उन मौन भावों में सवाक क्षणों का अनुभव होता है। त्यौहारों के उत्साह से वर्षभर शिप्रातट जगमगाता रहता है। पर्वों की उमंग से पौराणिक तटों पर वर्षभर मेले जैसा माहौल रहता है ।

 

ऐसा ही एक प्रमुख त्यौहार है गंगा दशहरा । देशभर में यह उत्सव दस दिवसीय होता है, लेकिन शिप्रा के किनारों पर इसके रंग 15 दिनों तक बिखरते रहते हैं। गंगा दशमी तिथि को महर्षि कपिल मुनि के आश्रम में पहुंची थी दूसरे दिन भीमसेन एकादशी को गंगाजल से मृतात्माओं का मोक्ष तो हो गया, लेकिन मृतात्माओं के शरीर में जीव शेष रहने से गंगा को ब्रह्म हत्या का पाप लग गया था। तब ब्रह्माजी की आज्ञा से ब्रह्महत्या के पाप से मोक्ष हेतु गंगा गुप्त मार्ग से पांच दिन में उज्जयिनी आई थी और शिप्रा में संगमेश्वर नामक स्थान पर शिप्रा और गंगा का संगम हुआ था। इन्ही पांच दिनों को गंगा दशहरा उत्सव में जोड़कर देखा जाता है।

 

स्कन्द पुराण में एक कथा यह भी है कि एक बार गंगा भूतभावन महादेव के पास गई और बोली कि’ हे महादेव मैं सबके पाप धोते-धोते खुद मैली हो गई हूं। इसलिए अब मैं स्वयं को स्वच्छ करने के लिए कहां जाऊं।‘ तब भगवान नीलकंठ ने गंगा की नीली काया को देखकर कहा कि’ वह महाकाल वन में जाए और वहां पर पुण्यसलीला शिप्रा में मिल जाए। सदानीरा शिप्रा ही गंगा तुमको स्वच्छ करेगी। ‘

 

नीलवर्णी गंगा महाकाल वन में जिस स्थान पर उतरी वह स्थान नीलगंगा कहलाया और इसी जगह को नीलगंगा का प्राकट्य भी माना जाता है। यहां से बहती हुई गंगा नृसिह घाट के समीप जाकर शिप्रा में मिली और उसको मोक्ष प्राप्त हुआ। आज भी उज्जैन में नीलगंगा का सरोवर काफी पवित्र माना जाता है और सिंहस्थ के समय जूना अखाड़ा का पहला पड़ाव नीलगंगा में ही होता है।

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