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फिल्म जिसे देख थियेटर से रो-रोकर निकले थे लोग

फिल्मों को हकीकत का आइना कहा जाता है. भारतीय सिनेमा में कई फिल्में ऐसी रही हैं जिन्होंने वास्तविक कहानियों को बड़ी खूबसूरती से पर्दे पर परोसा है. ऐसी फिल्में आज भी बनाई जाती हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि आज बड़ा बजट, मॉर्डन तकनीक और उपयुक्त संसाधन होते हैं. जबकि पुरानी फिल्मों में निर्देशक और कलाकार बेहद सीमित संसाधनों में ही कमाल कर जाते थे. उस वक्त मजबूत स्क्रिप्ट, अच्छा अभिनय और निर्देशन कौशल ही फिल्म को कामयाब बनाने का मुख्य तरीका हुआ करते थे. ऐसी ही एक कामयाब फिल्म थी साल 1964 में रिलीज हुई धर्मेंद्र और बलराज साहनी स्टारर फिल्म हकीकत.

1962 के भारत चीन युद्ध की कहानी बयां करती इस फिल्म को देखने के बाद दर्शक आंखों से आंसू पोंछते हुए सिनेमाघरों से बाहर निकले थे. फिल्म की कहानी और संगीत दिलों को छू लेने वाला था. देशभक्ति से ओतप्रोत यह फिल्म चीन के साथ भारत की जंग की उस कहानी को बताती है जब जवानों ने बिना भूख-प्यास, परिवार, दर्द और तकलीफों की परवाह किए अपनी जान देश पर न्यौछावर कर दी. बात तब की है जब भारत वर्षों की गुलामी से आजाद हुआ था और अंग्रेजों द्वारा सालों तक दिए गए जख्म हिंदोस्तानियों के दिलों पर ताजा थे.

देश का आधारभूत ढांचा बहुत मजबूत नहीं था. आर्थिक हालत बुरी थी और लोगों के पास खाने-पीने तक को नहीं होता था. सेना भी इन हालातों से अछूती नहीं थी. लेकिन बावजूद इसके देशभक्ति का जज्बा ऐसा था कि बिना उपयुक्त हथियारों और बुनियादी संसाधनों के ही जवान मुल्क की रक्षा के लिए सीमा पर भिड़ गए.

देश की उत्तर पूर्वी सीमा पर बेहद विपरीत मौसम था, लेकिन बावजूद इसके संसाधनहीन भारतीय जवान पीछे नहीं हटे. उनके पास कपड़े नहीं थे, गोला बारूद नहीं था, लेकिन उनमें देशभक्ति का ऐसा जज्बा था कि राइफल में लगे चाकू के दम पर ही हजारों की तादात में सैनिक सीमा पर लड़ते रहे. तमाम जवान शहीद हुए. ये वो दौर था जब देश की महिलाओं ने प्रधानमंत्री युद्ध कोष में मदद के लिए अपने मंगलसूत्र तक दे दिए थे. जवानों की शहादत की इस कहानी को देखने वाला हर भारतीय सिनेमाहॉल से रोकर निकला था.

 

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