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नोटबंदी : सरकार ने बहुत सोच-समझ के लिया है फैसला, ये है मोदी की पूरी प्‍लानिंग?

ये कहना बिल्कुल गलत होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी का फैसला यूं ही एक दिन सुबह उठ कर ले लिया होगा। मोदी राजनीतिज्ञ हैं और मौजूदा दौर में बाकी कई नेताओं से ज़्यादा राजनीतिक समझ वाले हैं, इसलिए अगर आप ये सोचते हैं कि सक्रिय राजनीति में तीन दशकों से ज़्यादा गुजार चुके मोदी ने नोटबंदी का फैसला लेते हुए नफ़ा-नुकसान नहीं तौला होगा, तो आप पूरी तरह गलत हैं। इस फैसले का वक्त और इसका आकार मोदी ने पूरी तरह तौला है। यानी की सबसे पहले तो इस समय जो भी ये मान रहा है कि पीएम मोदी की ओर से नोटबंदी हड़बड़ी भरा फैसला है, तो वह पूरी तरह गलत है। उसे यह जान लेना चाहिए कि हर राजनीतिक फैसले की तरह इसकी भी एक कीमत है और मोदी वो चुकाने को तैयार हैं।
दरअसल, हर कोई ये जानता है कि मोदी के कद का नेता पूरे देश में नहीं है। मौजूदा राजनीतिक तंत्र में वो एक ऐसा मुकाम हासिल कर चुके हैं, जिसे फिलहाल कोई चुनौती देता नज़र नहीं आ रहा। यही प्रधानमंत्री के लिए वो मौका है, जब वो यथास्थिति को तोड़ने का जोखिम उठा सकते हैं। मौजूदा आर्थिक नीतियां नेहरू के समाजवाद के करीब हैं, जो दुनिया से करीब-करीब जा चुका है। भारत की बढ़ती जनसंख्या और अर्थव्यवस्था भी एक लंबे अरसे से नाटकीय बदलाव का इंतज़ार कर रही है।
इधर, मज़बूत मध्यम वर्ग ने अपने हक के सवाल पूछने शुरू कर दिए हैं। मोदी जानते हैं कि भविष्य की राजनीति पुराने फॉर्मूलों पर नहीं चल पाएगी। बीजेपी को परंपरागत तौर पर बनियों, व्यापारियों का समर्थन हासिल रहता है और इसमें कोई दो राय नहीं कि नोटबंदी से सबसे ज़्यादा असर इसी समुदाय पर पड़ा है, तो क्या नोटबंदी के फैसले से पहले मोदी ने इस पर विचार नहीं किया होगा?
दरअसल, इस फैसले के बाद अब कोशिश नई व्यवस्था बनाने की है, जिसमें नफ़ा भी है और नुकसान भी। ध्यान रहे प्रधानमंत्री मोदी सबसे ज़्यादा युवाओं में लोकप्रिय हैं। चुनाव जीतने के बाद पहले ही भाषण में उन्होंने ज़िक्र भी किया था कि उनकी रणनीति ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को साथ जोड़ने की है। नोटबंदी के फैसले और इस पर अपना पक्ष रखने के दौरान मोदी ने साफ किया कि उनकी रणनीति में युवा सबसे ऊपर हैं, और इन्हें जोड़ने के लिए वो परंपरागत समर्थकों को झटका देने के लिए भी तैयार हैं। अमूमन युवा वोट सबसे चंचल होता है। मोदी इस समर्थक वर्ग में गहरी पैठ बना कर अपने लिए लंबे वक्त तक समर्थन चाहते हैं।
यकीनन, मौजूदा वक्त में सभी पार्टियों की तरह बीजेपी के सामने भी यूपी चुनाव एक बड़ी समस्या होंगे। ज़्यादातर बड़ी पार्टियां चुनाव में खर्च किए गए पैसे का पूरा हिसाब नहीं देती हैं, तो क्या बीजेपी की मशीनरी चुनाव के लिए तैयार है, या मोदी ने इसे अनदेखा कर दिया। वैसे ये मानना भी गलत होगा कि उन्‍होंने फैसला लेने के पूर्व उत्तर प्रदेश पंजाब जैसे अहम चुनावों के बारे में बिल्‍कुल नहीं सोचा होगा, लेकिन राजनीतिक प्‍लानिंग के तरह लग रहा है कि वे 2019 के लिए 2017 की कुर्बानी देने को तैयार हैं। वैसे भी विधानसभा चुनाव मोदी से ज़्यादा अमित शाह की परीक्षा होगी।
इस तरह प्रधानमंत्री के पास अभी भी एक साल है, जब वो सारा जोखिम उठा कर चीज़ों को नए सिरे से समेट सकते हैं, लेकिन कुछ चीज़ें ऐसी भी हैं, जो खुद प्रधानमंत्री के हाथ नहीं। अब ये ज़िम्मेदारी उनकी टीम की है कि वो अगले 12 महीने तक ज़मीन तैयार करें। मसलन ज़्यादातर एक्सपर्ट्स का मानना है कि मौजूदा तिमाही में जीडीपी को तगड़ा झटका लगेगा। 2017 का बजट पहली फरवरी को होगा। उम्मीद जताई जा रही है कि इस बार के बजट में अर्थव्यवस्था और खासतौर पर रोज़गार पैदा करने वाले उद्योगों के लिए बड़ी घोषणाएं की जा सकती हैं।
कुल मिलाकर अगले 12 महीने देश की अर्थव्यवस्था के लिए करो या मरो वाले होंगे, फिर इधर अमेरिका में ट्रंप के बाद अनिश्चितता का माहौल है और भारत ज़रूर इससे फायदा उठाने की कोशिश करेगा। अब सारी बागडोर टीम मोदी की आर्थिक टीम के हाथ होगी, क्योंकि अगर वो स्थिति को काबू नहीं कर पाए और 2017 के आखिर तक चीज़ें काबू में नहीं आईं तो हालात राजनैतिक तौर पर खतरनाक हो सकते हैं। नोटबंदी आर्थिक के साथ राजनैतिक खेल भी है, और मोदी एक समझी चाल चल चुके हैं। 2019 की पटकथा लिखने की शुरुआत हो चुकी है और ये पटकथा 2017 के आखिर तक पूरी भी हो जाए।

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