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आचार्य चाणक्य के अनमोल विचार ...

1. à¤¨à¤¿à¤°à¥à¤¬à¤² राजा को तत्काल संधि करनी चाहिए।

2. à¤ªà¤¡à¥‹à¤¸à¥€ राज्यों से सन्धियां तथा पारस्परिक व्यवहार का आदान-प्रदान और संबंध विच्छेद आदि का निर्वाह मंत्रिमंडल करता है।

3. à¤¨à¤¿à¤•à¤Ÿ के राज्य स्वभाव से शत्रु हो जाते है।

#4. à¤•à¤¿à¤¸à¥€ विशेष प्रयोजन के लिए ही शत्रु मित्र बनता है।

#5. à¤‹à¤£, शत्रु  और रोग को समाप्त कर देना चाहिए।

#6. à¤µà¤¨ की अग्नि चन्दन की लकड़ी को भी जला देती है अर्थात दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकते है।

#9. à¤¯à¤¦à¤¿ माता दुष्ट है तो उसे भी त्याग देना चाहिए।

#10. à¤¯à¤¦à¤¿ स्वयं के हाथ में विष फ़ैल रहा है तो उसे काट देना चाहिए।

#11. à¤¸à¤¾à¤‚प को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है, न की अमृत।

#12. à¤à¤• बिगडैल गाय सौ कुत्तों से भी ज्यादा श्रेष्ठ है अर्थात एक विपरीत स्वभाव का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते हैं|

#13. à¤¶à¤¤à¥à¤°à¥ की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाए रखें।

14. सिंह भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।

#15. एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते है।

#16. आपातकाल में स्नेह करने वाला व्यक्ति ही मित्र होता है।

#17. मित्रों के संग्रह से बल प्राप्त होता है। जो धैर्यवान नहीं है, उसका न वर्तमान है न भविष्य।

#18. कल के मोर से आज का कबूतर भला अर्थात संतोष सब से बड़ा धन है।

#19. विद्या ही निर्धन का धन है। विद्या को चोर भी चुरा नहीं सकता।

#20. शत्रुओं के गुणों को भी ग्रहण करना चाहिए।

#21. अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।

#22. किसी लक्ष्य की सिद्धि में कभी भी किसी भी शत्रु का साथ न करें।

#23. आलसी का न वर्तमान है, और न ही भविष्य।

#24. चंचल चित वाले के कार्य कभी समाप्त नहीं होते। पहले निश्चय करिए, फिर कार्य आरम्भ करिए।

#25. भाग्य पुरुषार्थी के पीछे चलता है। अर्थ, धर्म और कर्म का आधार है। शत्रु दण्डनीति के ही योग्य है।

#26. आग में घी नहीं डालनी चाहिए अर्थात क्रोधी व्यक्ति को अधिक क्रोध नहीं दिलाना चाहिए।

#27. मनुष्य की वाणी ही विष और अमृत की खान है। दुष्ट की मित्रता से शत्रु की मित्रता अच्छी होती है।

#28. दूध के लिए हथिनी पालने की जरुरत नहीं होती अर्थात आवश्यकतानुसार साधन जुटाने चाहिए।

#29. कठिन समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए।

#30. सुख का आधार धर्म है। धर्म का आधार अर्थ अर्थात धन है। अर्थ का आधार राज्य है।

#31. वृद्धजन की सेवा ही विनय का आधार है। वृद्ध सेवा अर्थात ज्ञानियों की सेवा से ही ज्ञान प्राप्त होता है।



#32. ज्ञान से राजा अपनी आत्मा का परिष्कार करता है, सम्पादन करता है।

#33. विचार अथवा मंत्रणा को गुप्त न रखने पर कार्य नष्ट हो जाता है। लापरवाही अथवा आलस्य से भेद खुल जाता है।

#34. सभी मार्गों से मंत्रणा की रक्षा करनी चाहिए। मन्त्रणा की सम्पति से ही राज्य का विकास होता है।

#35. मंत्रणा की गोपनीयता को सर्वोत्तम माना गया है। भविष्य के अन्धकार में छिपे कार्य के लिए श्रेष्ठ मंत्रणा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है।

#36. मंत्रणा के समय कर्तव्य पालन में कभी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। मंत्रणा रूप आँखों से शत्रु के छिद्रों अर्थात उसकी कमजोरियों को देखा-परखा जाता है।

#37. आवाप अर्थात दूसरे राष्ट्र से संबंध नीति का परिपालन मंत्रिमंडल का कार्य है।

#38. दुर्बल के साथ संधि न करे। ठंडा लोहा लोहे से नहीं जुड़ता।

#39. संधि करने वालो में तेज़ ही संधि का हित होता है।

#40. à¤¶à¤¤à¥à¤°à¥  के प्रयत्नों की समीक्षा करते रहना चाहिए।

#41. à¤¬à¤²à¤µà¤¾à¤¨ से युद्ध करना हाथियों से पैदल सेना को लड़ाने के समान है।

#42. à¤•à¤šà¥à¤šà¤¾ पात्र कच्चे पात्र से टकराकर टूट जाता है।

#43. à¤†à¤¤à¥à¤® रक्षा से ही सबकी रक्षा होती है। आत्म सम्मान के हनन से विकास का विनाश हो जाता है।

#44. à¤¨à¤¿à¤°à¥à¤¬à¤² राजा की आज्ञा की भी अवहेलना कदापि नहीं करनी चाहिए। अग्नि में दुर्बलता नहीं होती।

#45. à¤¦à¤‚डनीति से राजा की प्रवति अर्थात स्वभाव का पता चलता है। स्वभाव का मूल अर्थ लाभ होता है।

#46. à¤…र्थ कार्य का आधार है। धन होने पर अल्प प्रयत्न करने से कार्य पूर्ण हो जाते है।

#47. à¤‰à¤ªà¤¾à¤¯ से सभी कई कार्य पूर्ण हो जाते है।  कोई à¤­à¥€ कार्य कठिन नहीं होता।

#48. à¤•à¤¾à¤°à¥à¤¯ के मध्य में अति विलम्ब और आलस्य उचित नहीं है। कार्य-सिद्धि के लिए हस्त-कौशल का उपयोग करना चाहिए।

#49. à¤­à¤¾à¤—्य के विपरीत होने पर अच्छा कर्म भी दुखदायी हो जाता है। अशुभ कार्यों को नहीं करना चाहिए अर्थात गलत कार्यों को नहीं करना चाहिए|

#50. à¤¸à¤®à¤¯ को समझने वाला कार्य सिद्ध करता है।

#51. à¤¸à¤®à¤¯ का ज्ञान न रखने वाले राजा का कर्म समय के द्वारा ही नष्ट हो जाता है।

#52. à¤ªà¤°à¥€à¤•à¥à¤·à¤¾ करने से लक्ष्मी स्थिर रहती है।

#53. à¤¨à¥€à¤¤à¤¿à¤µà¤¾à¤¨ पुरुष कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व ही देश-काल की परीक्षा कर लेते है।

#54. à¤…प्राप्त लाभ आदि राज्यतंत्र के चार आधार है। आलसी राजा अप्राप्त लाभ को प्राप्त नहीं करता।

#55. à¤•à¤¾à¤°à¥à¤¯-अकार्य के तत्वदर्शी ही मंत्री होने चाहिए। राजा, गुप्तचर और मंत्री तीनो का एक मत होना किसी भी मंत्रणा की सफलता है।

#56. à¤¯à¥‹à¤—्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है। एक अकेला पहिया नहीं चला करता।

#57. à¤‡à¤¨à¥à¤¦à¥à¤°à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ पर विजय का आधार विनर्मता है। प्रकृति का कोप सभी कोपों से बड़ा होता है।

#58. à¤†à¤¤à¥à¤®à¤µà¤¿à¤œà¤¯à¥€ सभी प्रकार की संपत्ति एकत्र करने में समर्थ होता है।

#59. à¤œà¤¹à¤¾à¤ लक्ष्मी है वहां स्वानी का (नध), वहां सरलता से सुख आ जाता है|

#60. à¤¬à¤¿à¤¨à¤¾ उपाय के किए गए कार्य प्रयत्न करने पर भी बचाए नहीं जा सकते, नष्ट हो जाते है।

#61. à¤•à¤¾à¤°à¥à¤¯ करने वाले के लिए उपाय सहायक होता है। कार्य का स्वरुप निर्धारित हो जाने के बाद वह कार्य लक्ष्य बन जाता है।

#62. à¤…स्थिर मन वाले की सोच स्थिर नहीं रहती। सभी प्रकार की सम्पति का सभी उपायों से संग्रह करना चाहिए।

#63. à¤¬à¤¿à¤¨à¤¾ विचार किये कार्य करने वालों को भाग्यलक्ष्मी त्याग देती है।

#64. à¤¦à¥‡à¤¶ और फल का विचार करके कार्य आरम्भ करें।

#65. à¤œà¥à¤žà¤¾à¤¨ अर्थात अपने अनुभव और अनुमान के द्वारा कार्य की परीक्षा करें।

#66. à¤‰à¤ªà¤¾à¤¯à¥‹à¤‚ को जानने वाला कठिन कार्यों को भी सरल बना लेता है।

#67. à¤µà¤¿à¤¶à¥à¤µà¤¾à¤¸ की रक्षा प्राण से भी अधिक करनी चाहिए। चुगलखोर श्रोता के पुत्र और पत्नी उसे त्याग देते है।

#68. à¤¬à¤šà¥à¤šà¥‹à¤‚ की सार्थक बातें ग्रहण करनी चाहिए।

#69. à¤¸à¤¾à¤§à¤¾à¤°à¤£ दोष देखकर महान गुणों को त्याज्य नहीं समझना चाहिए।

#70. à¤œà¥à¤žà¤¾à¤¨à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ में भी दोष सुलभ है।

#71. à¤®à¤›à¤µà¤¾à¤°à¤¾ जल में प्रवेश करके ही कुछ पाता है।

#72. à¤°à¤¾à¤œà¤¾ अपने बल-विक्रम से धनी होता है।

#73. à¤¶à¤¤à¥à¤°à¥ भी उत्साही व्यक्ति के वश में हो जाता है।

#74. à¤‰à¤¤à¥à¤¸à¤¾à¤¹ हीन व्यक्ति का भाग्य भी अंधकारमय हो जाता है।

#75. à¤…पनी कमजोरी का प्रकाशन न करें। एक अंग का दोष भी पुरुष को दुखी करता है।

#76. à¤¶à¤¤à¥à¤°à¥ हमेशा छिद्र (कमजोरी) पर ही प्रहार करते है। हाथ में आए शत्रु पर कभी विश्वास न करें।

#77. à¤¸à¥à¤µà¤œà¤¨à¥‹à¤‚ की बुरी आदतों का समाधान करना चाहिए। स्वजनों के अपमान से मनस्वी दुःखी होते है।

#78. à¤¸à¤¦à¤¾à¤šà¤¾à¤° से शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सकती है। विकृतिप्रिय लोग नीचता का व्यवहार करते है।

#79. à¤¨à¥€à¤š व्यक्ति को उपदेश देना ठीक नहीं। नीच लोगों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।

#80. à¤­à¤²à¥€ प्रकार से पूजने पर भी दुर्जन पीड़ा पहुंचाता है।

#81. à¤•à¤­à¥€ भी पुरुषार्थी का अपमान नहीं करना चाहिए।

#82. à¤•à¥à¤·à¤®à¤¾à¤¶à¥€à¤² पुरुष को कभी दुःखी न करें। क्षमा करने योग्य पुरुष को दुःखी न करें।

#83. à¤¸à¥à¤µà¤¾à¤®à¥€ द्वारा एकांत में कहे गए गुप्त रहस्यों को मुर्ख व्यक्ति प्रकट कर देते हैं।

#84. à¤…नुराग अर्थात प्रेम फल अथवा परिणाम से ज्ञात होता है।

#85. à¤œà¥à¤žà¤¾à¤¨ ऐश्वर्य का फल है। मुर्ख व्यक्ति दान देने में दुःख का अनुभव करता है।

#86. à¤µà¤¿à¤µà¥‡à¤•à¤¹à¥€à¤¨ व्यक्ति महान ऐश्वर्य पाने के बाद भी नष्ट हो जाते है।

#87. à¤§à¥ˆà¤°à¥à¤¯à¤µà¤¾à¤¨ व्यक्ति अपने धैर्ये से रोगों को भी जीत लेता है।

#88. à¤—ुणवान क्षुद्रता को त्याग देता है।

#89. à¤•à¤®à¤œà¥‹à¤° शरीर में बढ़ने वाले रोग की उपेक्षा न करें।

#90. à¤¶à¤°à¤¾à¤¬à¥€ के हाथ में थमें दूध को भी शराब ही समझा जाता है।

#91. à¤®à¥à¤°à¥à¤– का कोई मित्र नहीं है। धर्म के समान कोई मित्र नहीं है। धर्म ही लोक को धारण करता है।

#92. à¤ªà¥à¤°à¥‡à¤¤ भी धर्म-अधर्म का पालन करते है। दया धर्म की जन्मभूमि है।

#93. à¤§à¤°à¥à¤® का आधार ही सत्य और दान है।

#94. à¤®à¥ƒà¤¤à¥à¤¯à¥ भी धर्म पर चलने वाले व्यक्ति की रक्षा करती है। जहाँ पाप होता है, वहां धर्म का अपमान होता है।

#95. à¤²à¥‹à¤•-व्यवहार में कुशल व्यक्ति ही बुद्धिमान है।

#96. à¤¸à¤œà¥à¤œà¤¨ को बुरा आचरण नहीं करना चाहिए।

#97. à¤…धर्म बुद्धि से आत्मविनाश की सुचना मिलती है।

#98. à¤µà¤¿à¤¨à¤¾à¤¶ का उपस्थित होना सहज प्रकृति से ही जाना जा सकता है।

#99. à¤šà¥à¤—लखोर व्यक्ति के सम्मुख कभी गोपनीय रहस्य न खोलें।

#100. à¤°à¤¾à¤œà¤¾ के सेवकों का कठोर होना अधर्म माना जाता है

#101. à¤¦à¥‚सरों की रहस्यमयी बातों को नहीं सुनना चाहिए।

#102. à¤ªà¤°à¤¾à¤¯à¤¾ व्यक्ति यदि हितैषी हो तो वह भाई है। उदासीन होकर शत्रु की उपेक्षा न करें।

#103. à¤…ल्प व्यसन भी दुःख देने वाला होता है।

#104. à¤¸à¥à¤µà¤¯à¤‚ को अमर मानकर धन का संग्रह करें। धनवान व्यक्ति का सारा संसार सम्मान करता है।

#105. à¤§à¤¨à¤µà¤¿à¤¹à¥€à¤¨ महान राजा का संसार सम्मान नहीं करता। दरिद्र मनुष्य का जीवन मृत्यु के समान है।

#106. à¤§à¤¨à¤µà¤¾à¤¨ असुंदर व्यक्ति भी सुरुपवान कहलाता है। याचक कंजूस-से- कंजूस धनवान को भी नहीं छोड़ते।

#107. à¤¸à¤¾à¤§à¥‚ पुरुष किसी के भी धन को अपना नहीं मानते है। दूसरे के धन अथवा वैभव का लालच नहीं करना चाहिए।

#108. à¤®à¥ƒà¤¤ व्यक्ति का औषधि से क्या प्रयोजन। दूसरे के धन का लोभ नाश का कारण होता है।

#109. à¤¦à¥‚सरे का धन तिनकेभर भी नहीं चुराना चाहिए। दूसरों के धन का अपहरण करने से स्वयं अपने ही धन का नाश हो जाता है।

#110. à¤šà¥‹à¤° कर्म से बढ़कर कष्टदायक मृत्यु पाश भी नहीं है।

#111. à¤œà¥€à¤µà¤¨ के लिए सत्तू (जौ का भुना हुआ आटा) भी काफी होता है।

#112. à¤¹à¤° पल अपने प्रभुत्व को बनाए रखना ही कर्तव्य है।

#113. à¤¨à¤¿à¤•à¤®à¥à¤®à¥‡ और आलसी व्यक्ति को भूख का कष्ट झेलना पड़ता है।

#114. à¤¨à¥€à¤š की विधाएँ पाप कर्मों का ही आयोजन करती है।

#115. à¤­à¥‚खा व्यक्ति अखाद्य को भी खा जाता है।

#116. à¤‡à¤‚द्रियों के अत्यधिक प्रयोग से बुढ़ापा आना शुरू हो जाता है।

#117. à¤¸à¤‚पन्न और दयालु स्वामी की ही नौकरी करनी चाहिए।

#118. à¤²à¥‹à¤­à¥€ और कंजूस स्वामी से कुछ पाना जुगनू से आग प्राप्त करने के समान है।

#119. à¤¨à¥€à¤š और उत्तम कुल के बीच में विवाह संबंध नहीं होने चाहिए।

#120. à¤‰à¤šà¤¿à¤¤ समय पर सम्भोग (sex) सुख न मिलने से स्त्री बूढी हो जाती है।

#121. à¤¨ जाने योग्य जगहों पर जाने से आयु, यश और पुण्य क्षीण हो जाते है।

#122. à¤…धिक मैथुन (सेक्स) से पुरुष बूढ़ा हो जाता है।

#123. à¤…हंकार से बड़ा मनुष्य का कोई शत्रु नहीं।

#124. à¤¸à¤­à¤¾ के मध्य शत्रु पर क्रोध न करें।

#125. à¤¶à¤¤à¥à¤°à¥ की बुरी आदतों को सुनकर कानों को सुख मिलता है।

#126. à¤§à¤¨à¤¹à¥€à¤¨ की बुद्धि दिखाई नहीं देती।

#127. à¤µà¥à¤¯à¤¸à¤¨à¥€ व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।

#128. à¤¶à¤•à¥à¤¤à¤¿à¤¶à¤¾à¤²à¥€ शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करे|

#129. à¤¸à¥à¤µà¤­à¤¾à¤µ का अतिक्रमण अत्यंत कठिन है।

#130. à¤§à¥‚र्त व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की सेवा करते हैं।

#131. à¤°à¤¾à¤œà¤¾ के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए।

#132. à¤µà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿ को उट-पटांग अथवा गवार वेशभूषा धारण नहीं करनी चाहिए।

#133. à¤¦à¥‡à¤µà¤¤à¤¾ के चरित्र का अनुकरण नहीं करना चाहिए।

#134. à¤œà¥à¤‚ए में लिप्त रहने वाले के कार्य पूरे नहीं होते है।

#135. à¤¶à¤¿à¤•à¤¾à¤°à¤ªà¤°à¤¸à¥à¤¤ राजा धर्म और अर्थ दोनों को नष्ट कर लेता है।

#136. à¤¶à¤°à¤¾à¤¬à¥€ व्यक्ति का कोई कार्य पूरा नहीं होता है। कामी पुरुष कोई कार्य नहीं कर सकता।

#137. à¤¦à¤‚ड का भय न होने से लोग अकार्य करने लगते है। दण्डनीति से आत्मरक्षा की जा सकती है।

#138. à¤­à¤¾à¤—्य का शमन शांति से करना चाहिए। मनुष्य के कार्य में आई विपत्ती को कुशलता से ठीक करना चाहिए।

#139. à¤•à¤¾à¤°à¥à¤¯ की सिद्धि के लिए उदारता नहीं बरतनी चाहिए। दूध पीने के लिए गाय का बछड़ा अपनी माँ के थनों पर प्रहार करता है।

#140. à¤®à¥à¤°à¥à¤– लोगों का क्रोध उन्हीं का नाश करता है। सच्चे लोगो के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं।

#141. à¤•à¥‡à¤µà¤² साहस से कार्य-सिद्धि संभव नहीं। व्यसनी व्यक्ति लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही रुक जाता है।

#142. à¤¦à¥‚सरे के धन पर भेदभाव रखना स्वार्थ है। न्याय विपरीत पाया धन, धन नहीं है।

#143. à¤¦à¤¾à¤¨ ही धर्म है। न्याय ही धन है। जो धर्म और अर्थ की वृद्धि नहीं करता वह  कामी है।

#144. à¤¸à¥€à¤§à¥‡ और सरल व्यक्ति दुर्लभता से मिलते है। बहुत से गुणों को एक ही दोष ग्रस्त कर लेता है।

#145. à¤šà¤°à¤¿à¤¤à¥à¤° का उल्लंघन कदापि नहीं करना चाहिए। महात्मा को पराए बल पर साहस नहीं करना चाहिए।

#146. à¤¶à¤¤à¥à¤°à¥ द्वारा किया गया स्नेहपूर्ण व्यवहार भी दोषयुक्त समझना चाहिए।

#147. à¤¸à¤œà¥à¤œà¤¨ की राय का उल्लंघन न करें। गुणी व्यक्ति का आश्रय लेने से निर्गुणी भी गुणी हो जाता है।

#148. à¤¦à¥‚ध में मिला जल भी दूध बन जाता है। कार्य करते समय शत्रु का साथ नहीं करना चाहिए।

#149. à¤†à¤µà¤¶à¥à¤¯à¤•à¤¤à¤¾à¤¨à¥à¤¸à¤¾à¤° कम भोजन करना ही स्वास्थ्य प्रदान करता है।

#150. à¤¦à¥à¤·à¥à¤Ÿ के साथ नहीं रहना चाहिए।

#151. à¤°à¥‹à¤— शत्रु से भी बड़ा है।

#152. à¤¸à¤¾à¤®à¤°à¥à¤¥à¥à¤¯ के अनुसार ही दान दें।

#153. à¤šà¤¾à¤²à¤¾à¤• और लोभी बेकार में घनिष्ठता को बढ़ाते है।

#154. à¤²à¥‹à¤­ बुद्धि पर छा जाता है, अर्थात बुद्धि को नष्ट कर देता है।

#155. à¤®à¥‚र्खों से विवाद नहीं करना चाहिए। मुर्ख से मूर्खों जैसी ही भाषा बोलें।

#156. à¤‰à¤ªà¤¾à¤°à¥à¤œà¤¿à¤¤ धन का त्याग ही उसकी रक्षा है अर्थात उपार्जित धन को लोक हित के कार्यों में खर्च करके सुरक्षित कर लेना चाहिए।

#157. à¤…कुलीन धनिक भी कुलीन से श्रेष्ठ है। नीच व्यक्ति को अपमान का भय नहीं होता।

#158. à¤•à¤°à¥à¤® करने वाले को मृत्यु का भय नहीं सताता। विशेषज्ञ व्यक्ति को स्वामी का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।

#159. à¤¨à¤¿à¤°à¥à¤§à¤¨ व्यक्ति की पत्नी भी उसकी बात नहीं मानती।

#160. à¤¨à¤¿à¤°à¥à¤§à¤¨ व्यक्ति की हितकारी बातों को भी कोई नहीं सुनता।

#161. à¤ªà¥à¤·à¥à¤ªà¤¹à¥€à¤¨ होने पर सदा साथ रहने वाला भौरा वृक्ष को त्याग देता है।

#162. à¤µà¤¿à¤¦à¥à¤¯à¤¾ से विद्वान की ख्याति होती है।

#163. à¤¯à¤¶ शरीर को नष्ट नहीं करता।

#164. à¤œà¥‹ दूसरों की भलाई के लिए समर्पित है, वही सच्चा पुरुष है।

#165. à¤¶à¤¾à¤¸à¥à¤¤à¥à¤°à¥‹à¤‚ के ज्ञान से इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है।

#166. à¤¨à¥€à¤š व्यक्ति की शिक्षा की अवहेलना करनी चाहिए।

#167. à¤®à¤²à¤¿à¤› अर्थात नीच की भाषा कभी शिक्षा नहीं देती।

#168. à¤—लत कार्यों में लगने वाले  व्यक्ति को  शास्त्रज्ञान ही रोक पाते है।

#169. à¤®à¤²à¤¿à¤› अर्थात नीच व्यक्ति की भी यदि कोई अच्छी बात हो तो अपना लेना चाहिए।

#170. à¤—ुणों से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। विष में यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।

#171. à¤µà¤¿à¤¶à¥‡à¤· स्थिति में ही पुरुष सम्मान पाता है। सदैव आर्यों (श्रेष्ठ जन) के समान ही आचरण करना चाहिए।

#172. à¤®à¤°à¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ का कभी उल्लंघन न करें। विद्वान और प्रबुद्ध व्यक्ति समाज के रत्न है।

#173. à¤ªà¤°à¤¿à¤šà¤¯ हो जाने के बाद दोष नहीं छिपाते। स्वयं अशुद्ध व्यक्ति दूसरे से भी अशुद्धता की शंका करता है।

#174. à¤…पराध के अनुरूप ही दंड दें। कथन के अनुसार ही उत्तर दें।

#175. à¤µà¥ˆà¤­à¤µ के अनुरूप ही आभूषण और वस्त्र धारण करें। अपने कुल अर्थात वंश के अनुसार ही व्यवहार करें। उम्र के अनुरूप ही वेश धारण करें।

#176. à¤¸à¥‡à¤µà¤• को स्वामी के अनुकूल कार्य करने चाहिए। पति के वश में रहने वाली पत्नी ही व्यवहार के अनुकूल होती है।

#177. à¤•à¤¾à¤°à¥à¤¯ के अनुरूप प्रयत्न करें। पात्र के अनुरूप दान दें।

#178. à¤¶à¤¿à¤·à¥à¤¯ को गुरु के वश में होकर कार्य करना चाहिए। पुत्र को पिता के अनुकूल आचरण करना चाहिए।

#179. à¤…त्यधिक आदर-सत्कार से शंका उत्पन्न हो जाती है। स्वामी के क्रोधित होने पर स्वामी के अनुरूप ही काम करें।

#180. à¤®à¤¾à¤¤à¤¾ द्वारा प्रताड़ित बालक माता के पास जाकर ही रोता है। स्नेह करने वालों  का रोष अल्प समय के लिए होता है।

#181. à¤®à¥à¤°à¥à¤– व्यक्ति को अपने दोष दिखाई नहीं देते, उसे दूसरे के दोष ही दिखाई देते हैं।

#182. à¤¸à¥à¤µà¤¾à¤°à¥à¤¥ पूर्ति हेतु दी जाने वाली भेंट ही उनकी सेवा है।

#183. à¤¬à¤¹à¥à¤¤ दिनों से परिचित व्यक्ति की अत्यधिक सेवा शंका उत्पन्न करती है।

#184. à¤…ति आसक्ति दोष उत्पन्न करती है। शांत व्यक्ति सबको अपना बना लेता है।

#185. à¤¬à¥à¤°à¥‡ व्यक्ति पर क्रोध करने से पूर्व अपने आप पर ही क्रोध करना चाहिए।

#186. à¤¬à¥à¤¦à¥à¤§à¤¿à¤®à¤¾à¤¨ व्यक्ति को मुर्ख, मित्र, गुरु और अपने  प्रियजनों से विवाद नहीं करना चाहिए।

#187. à¤à¤¶à¥à¤µà¤°à¥à¤¯ पैशाचिकता से अलग नहीं होता। स्त्री में गंभीरता न होकर चंचलता होती है।

#188. à¤§à¤¨à¤¿à¤• को शुभ कर्म करने में अधिक श्रम नहीं करना पड़ता। वाहनों पर यात्रा करने वाले पैदल चलने का कष्ट नहीं करते।

#189. à¤œà¥‹ व्यक्ति जिस कार्य में कुशल हो, उसे उसी कार्य में लगाना चाहिए।

#190. à¤¸à¥à¤¤à¥à¤°à¥€ का निरिक्षण करने में आलस्य न करें। स्त्री पर जरा भी विश्वास न करें। स्त्री बिना लोहे की बड़ी है। स्त्री का आभूषण लज्जा है।

#191. à¤¬à¥à¤°à¤¾à¤¹à¥à¤®à¤£à¥‹à¤‚ का आभूषण वेद है। सभी व्यक्तियों का आभूषण धर्म है। विनय से युक्त विद्या सभी आभूषणों की आभूषण है।

#192. à¤¶à¤¾à¤‚तिपूर्ण देश में ही रहें। जहां सज्जन रहते हों, वहीं बसें। राजा की आज्ञा से सदैव डरते रहे।

#193. à¤°à¤¾à¤œà¤¾ से बड़ा कोई देवता नहीं। राज अग्नि दूर तक जला देती है। राजा के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिए।

#194. à¤—ुरु और देवता के पास भी खाली नहीं जाना चाहिए। राजपरिवार से द्वेष अथवा भेदभाव नहीं रखना चाहिए।

#195. à¤°à¤¾à¤œà¤•à¥à¤² में सदैव आते-जाते रहना चाहिए। राजपुरुषों से संबंध बनाए रखें।

#196. à¤°à¤¾à¤œà¤¦à¤¾à¤¸à¥€ से कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिए। राजधन की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखना चाहिए।

#197. à¤ªà¥à¤¤à¥à¤° के गुणवान होने से परिवार स्वर्ग बन जाता है। पुत्र को सभी विद्याओं में क्रियाशील बनाना चाहिए।

#198. à¤œà¤¨à¤ªà¤¦ के लिए ग्राम का त्याग कर देना चाहिए| ग्राम के लिए कुटुम्ब (परिवार) को त्याग देना चाहिए।

#199. à¤ªà¥à¤¤à¥à¤° प्राप्ति सर्वश्रेष्ठ लाभ है। प्रायः पुत्र पिता का ही अनुगमन करता है।

#200. à¤—ुणी पुत्र माता-पिता की दुर्गति नहीं होने देता। पुत्र से ही कुल को यश मिलता है। जिससे कुल का गौरव बढे वही पुरुष है।शेष अगले दिन पढ़ें .

 

 

 

 

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