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इस सीट को जीतने के लिए 25 साल से तरस रही कांग्रेस

 à¤¬à¤¿à¤²à¤¾à¤¸à¤ªà¥à¤° लोकसभा सीट भाजपा के लिए जहां अभेद गढ़ साबित हो रही है वहीं कांग्रेस के लिए यह चुनौती बनती जा रही है। बीते 25 वर्षों से इस सीट को अपने कब्जे में करने कांग्रेस जोर आजमाइश कर रही है। पर हर बार असफलता ही हाथ लगती है। चुनाव-दर-चुनाव हार का अंतर और बढ़ते जा रहा है।

विधानसभा चुनाव में जिस तरह सत्ता परिवर्तन का जोर चला और बदलाव का राजनीतिक मुद्दा हावी रहा । बदलाव के इसी कश्ती पर सवार होकर कांग्रेसी इस बार जीत की गुंजाइश भी देखने लगे हैं।

चुनाव वर्ष 1951 से लेकर वर्ष 2014 के चुनाव परिणाम पर गौर करें तो यहां प्रत्याशी की छवि को मतदाताओं ने बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दिया है। परंपरागत मतदाताओं के साथ स्वींग वोटरों की सहभागिता हमेशा से ही इस सीट पर दिखाई देती रही है।

बिलासपुर लोकसभा सीट से जिन लोगों ने प्रतिनिधित्व किया है उनमें दो या तीन नामचीन चेहरों को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो उम्मीदवार के बजाय मतदाताओं ने पार्टी के प्रतिबद्धता के चलते प्रत्याशियों को जीताकर दिल्ली भेजते रहे हैं। वर्ष 2014 का लोकसभा चुनाव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

भाजपा ने लखनलाल साहू को अपना उम्मीदवार बनाया था। कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री व भारत रत्न स्व.अटलबिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला को चुनाव मैदान में उतारा था। तब करुणा भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता व उपाध्यक्ष पद छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुई थीं।

लखनलाल के सामने वह न केवल बड़ा नाम था साथ ही एक बड़ा चेहरा भी । मोदी लहर में करुणा जैसे दिग्गज नेत्री भी धराशायी हो गईं। एक लाख 76 हजार वोटों के अंतर से चुनाव हार गईं। मोदी लहर में मतदाताओं व्यक्ति की छवि की बजाय पार्टी को तवज्जो दिया और भाजपा के बेनाम चेहरे को जीताकर संसद भेज दिया।

वर्ष 1951 से 1991 तक इस सीट से अलग-अलग पार्टी के सांसदों ने लोकसभा में प्रतिनिधित्व किया। मसलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय लोकदल, इंदिरा कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशी चुनाव जीतकर संसद पहुंचते रहे हैं। 40 साल तक यहां के मतदाताओं ने अलग-अलग पार्टी के प्रत्याशियों को चुनाव जीतकर न केवल राजनीतिक दल वरन जीतने वाले उम्मीदवार की कड़ी परीक्षा लेते रहे हैं। चार दशक एक बड़ा बदलाव आया।

प्रयोगधर्मी मतदाता एकाएक एक ही पार्टी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने लगे। लोकसभा क्षेत्र के मतदाता भाजपा के इतने मुरीद हुए कि फिर कांग्रेस या अन्य दलों के उम्मीदवारों की तरफ पलट कर नहीं देखा।

वर्ष 1996 से 2014 का चुनावी इतिहास इस बात का गवाह है कि भाजपा की जड़ें इस सीट में इतनी मजबूत है कि पार्टी जिसके सिर पर हाथ रख दे रही है मतदाता उस जिताकर दिल्ली भेज दे रहे हैं। एक अदद जीत के लिए कांग्रेसी रणनीतिकार तरस गए हैं।

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