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नोटबंदी की सियासत: क्या यूपी चुनाव में बीजेपी की नैया पार लगाएंगे ‘गरीबों के मसीहा’ मोदी?

साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री का दफ्तर संभाला, कई अर्थशास्त्रियों ने उनकी तुलना मार्ग्रेट थैचर और रोनाल्ड रीगन सरीखे फ्री मार्केट के बड़े पैरोकारों के साथ की. ये एक आम राय थी कि मोदी देश की अर्थव्यवस्था को और ज्यादा मुक्त बनाने के लिए बड़े पैमाने पर सुधारों का ऐलान करेंगे.

लेकिन लगभग आधे कार्यकाल के बाद मोदी ने अपने मुरीदों के साथ आलोचकों को भी गलत साबित किया है. उन्होंने नोटबंदी को बेईमान अमीरों के खिलाफ महरूम गरीब तबके की जंग की तरह पेश किया है. कुछ लोगों को मोदी के इस स्टाइल में इंदिरा गांधी की छाया नजर आती है. वो इंदिरा ही थीं जिन्होंने एक ओर ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया, दूसरी ओर बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसा क्रांतिकारी कदम उठाया.

अगर इंदिरा गांधी का मकसद ‘सिंडिकेट’ में शामिल अपने विरोधियों का मुंह बंद करना था तो मोदी ‘सूट-बूट की सरकार’ का तंज कसने वाले विपक्ष की बोलती बंद करना चाहते हैं.

मोदी की कोशिश एक खामोश बदलाव के जरिये अर्थव्यवस्था की सूरत बदलने की है. वो सत्ता का इस्तेमाल पीएम दफ्तर के वर्चस्व को नए मायने देने में कर रहे हैं. मोदी पुराने ढर्रे के सियासी गठबंधनों से इतर सीधे जनता से जुड़ने की कवायद में नजर आते हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या ये रणनीति यूपी और दूसरे राज्यों में जाति और धर्म के पारंपरिक समीकरणों को मात दे पाएगी?

 

नोटबंदी: एक जुआ
इस सवाल का जवाब नोटबंदी के लिए चुने गए वक्त से मिल सकता है. ये फैसला पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से महज तीन महीने पहले लिया गया.

बिहार में मिली करारी हार के बाद यूपी में जीत बीजेपी के लिए साख का सवाल है. वाराणसी से चुनकर आने के बाद मोदी के लिए लखनऊ की लड़ाई की निजी तौर पर अहमियत है. जहां यूपी में हार प्रधानमंत्री के चुनावी करिश्मे का मिथक तोड़ सकती है, वहीं जीत अगले आम चुनाव में जीत का रास्ता साफ करने वाली साबित हो सकती है.

यही वजह है कि नोटबंदी का फैसला हिंदी बेल्ट में बीजेपी का जनाधार बढ़ाने के नजरिए से लिया गया था. प्रधानमंत्री का इरादा धर्म और जाति के आधार पर बंटी पारंपरिक सियासत की जगह आर्थिक तौर पर समाज के अलग-अलग तबकों का समर्थन बटोरना था.

अगर साल 2014 में आर्थिक तरक्की ने उन्हें जीत का स्वाद चखाया तो 2017 में मोदी की रणनीति खुद को गरीबों के मसीहा की तरह प्रोजेक्ट करने की है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि मोदी हमेशा से पहचान की सियासत को आर्थिक वर्गों और विकास की राजनीति से बदलना चाहते हैं. ऐसा इसलिए भी अहम है क्योंकि जाति और धर्म के समीकरण ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को ही फायदा पहुंचाते रहे हैं.

बीजेपी की यूपी इकाई के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्या को यकीन है कि नोटबंदी का जुआ यूपी चुनाव में बीजेपी को फायदा पहुंचाएगा. उन्होंने कहा, ‘नोटबंदी का मकसद भ्रष्ट बड़े कारोबारियों को निशाना बनाकर गरीबों को मदद पहुंचाना है.’ मौर्या की राय में नोटबंदी और पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक का मुद्दा पार्टी का आंकड़ा 300 सीटों के पार पहुंचाने में कामयाब होगा.

अमित शाह समेत पार्टी के आला नेता मानते हैं कि जहां सर्जिकल स्ट्राइक राष्ट्रवाद के जज्बे को हवा देगा, नोटबंदी का मुद्दा बीजेपी के लिए गरीबों के वोट बटोरने का काम करेगा. नोटबंदी के ही रास्ते से पार्टी हिंदुत्व और गौ-रक्षा जैसे मुद्दों से ध्यान हटाकर संघ के कट्टर धड़ों को दरकिनार कर पाएगी. इस सिलसिले में आगामी बजट में भी तवज्जो गरीबों को फायदा पहुंचाने पर रह सकती है.

अमीर बनाम गरीब
नोटबंदी पर जमीनी राय अब भी बंटी हुई नजर आती है. जहां एक और मध्यम वर्ग एटीएम और बैंकों की लंबी कतारों से परेशान है, वहीं गोंडा, कुशीनगर, बलिया और मऊ जैसे जिलों में इसी नोटबंदी के चलते गरीबों को मनरेगा का मेहनताना पेशगी मिला है. कई जगहों पर रातों रात उनके जन-धन खातों में पैसा जमा हुआ है.

दूसरी तरफ, समाजवादी पार्टी समेत दूसरी विपक्षी पार्टियों को उम्मीद है कि नोटबंदी से उपजे हालात चुनाव में बीजेपी को नुकसान पहुंचाएंगे. हालांकि इंडिया टुडे-एक्सिस के प्री-इलेक्शन सर्वे इस उम्मीद को नकारते दिखते हैं. दिसंबर में करवाए गए इस सर्वे के मुताबिक बीजेपी यूपी, गोवा और उत्तराखंड में सरकार बना सकती है.

सर्वे के मुताबिक उत्तर प्रदेश में करीब 76 फीसदी वोटरों ने नोटबंदी का समर्थन किया है. हालांकि 58 फीसदी मतदाताओं ने माना कि उन्हें इस फैसले के चलते किल्लत झेलनी पड़ी है.

बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग
यूपी की सत्ता से बीजेपी का वनवास खत्म करने के लिए मोदी ने बड़े पैमाने पर सोशल इंजीनियरिंग का भी सहारा लिया है. पार्टी की कोशिश ब्राह्मण और बनियों की पार्टी की छवि से ऊपर उठने की है. यही वजह है कि पार्टी के नए पदाधिकारियों में ओबीसी नेताओं को तरजीह दी गई है. मोदी की चुनावी रैलियों में भी पिछड़े तबके के नेता मंच पर प्रमुखता से नजर आते हैं.

मगर बिहार की तरह यूपी में भी बीजेपी की दिक्कत है सीएम के लिए पुख्ता उम्मीदवार का ना होना. यूपी में पार्टी का काम देख रहे ज्यादातर सलाहकार दूसरे राज्यों से ताल्लुक रखते हैं.

इंडिया टुडे-एक्सिस सर्वे के नतीजे बताते हैं कि पार्टी को अगड़ी जातियों का 61 फीसदी वोट मिल सकता है. यादवों को छोड़कर कुर्मी और मौर्या जैसी दूसरी ओबीसी जातियों में भी पार्टी 53 फीसदी वोट के साथ बढ़त बनाए हुए है.

बीएसपी, एसपी से चुनौती
तमाम अंदाजों के बावजूद बीजेपी को यूपी की बिसात पर समाजवादी पार्टी और बीएसपी से कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद है. मायावती ने 87 दलितों और 97 मुसलमान और 106 ओबीसी प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है. वहीं 113 टिकट अगड़ी जातियों को बांटे गए हैं. मायावती की कोशिश अगड़ी जातियों को अपनी ओर खींचने की है.

बीएसपी प्रवक्ता सुधींद्र भदौरिया मानते हैं कि अगड़ी जातियों और मुस्लिमों के पास बीएसपी ही इकलौता विकल्प है. दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी के अखिलेश धड़े और कांग्रेस को मिलकर 32 फीसदी वोट मिलने का अनुमान है. ये सर्वे में बीजेपी को मिल रहे वोट शेयर से सिर्फ एक फीसदी कम है. साफ है कि ये गठबंधन बीजेपी के चुनावी समीकरण को बिगाड़ने की ताकत रखता है.

 

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